“मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश परीक्षा जिस तरह से इस बार हुई है, अगर आगे भी वैसी ही होती रही तो मुझे नहीं लगता कि ज़्यादा बच्चे डॉक्टर बनना भी चाहेंगे.”
एक वीडियो कॉल के ज़रिए मैंने रूस में रह रहीं सोयमी लोहाकारे से बात की. सोयमी फ़िलहाल एमबीबीएस की पढ़ाई यूक्रेन में कर रही हैं.
वह नॉर्दर्न स्टेट यूनिवर्सिटी से पढ़ाई कर रही हैं जो मॉस्को से तक़रीबन 100 किलोमीटर उत्तर की दिशा में है. उस इलाक़े को रूस का आर्कटिक कहा जाता है.
साल 2022 के आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि कुल 7,40,365 छात्र भारत से विदेशों में पढ़ाई के लिए गए थे. इस आंकड़े में साल 2021 के मुक़ाबले 69 फ़ीसदी की बढ़ोतरी है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी, फ़रवरी 2022 में इसी मुद्दे पर अपनी चिंता ज़ाहिर कर चुके हैं.
न्होंने कहा था, “ख़ास तौर से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले छात्र छोटे-छोटे देशों में जाते हैं, जहां की भाषा भी अलग है.”
“क्या हमारे प्राइवेट सेक्टर के लोग बहुत बड़ी मात्रा में इस फील्ड मे नहीं आ सकते? क्या हमारी राज्य सरकारें इस प्रकार के कामों के लिए ज़मीन देने की नीतिया नहीं बना सकतीं?”
विदेशों में भारतीय छात्रों को मिल रहे मेडिकल शिक्षा के स्तर को लेकर चिंतित, संसद की एक कमिटी ने हाल ही में मांग की है की सरकार ऐसे छात्रों को विदेश जाने से रोके.
सरकार विश्व भर में भारत को एक ग्लोबल स्टडी डेस्टिनेशन के रूप में देखे जाने की बात को बढ़ावा दे रही है. राष्ट्रीय शिक्षा पॉलिसी 2020 के तहत सरकार भारत में उच्च स्तरीय शिक्षा किफ़ायती दामों में लोगों तक पहुंचाने की भी बात कर रही है.
सोयमी कहती हैं कि उनका नीट का स्कोर अच्छा नहीं था इसलिए रूस जाना पड़ा.
भारत के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पाना इतना आसान नहीं है. लेकिन प्राइवेट कॉलेज इतना सस्ता नहीं है कि वहाँ से पढ़ाई की जा सके. सोयमी कहती हैं, ”प्राइवेट कॉलेज के एक अधिकारी ने हमें एक करोड़ 20 लाख रुपए जमा करने को कहा था.”
सोयमी ने बताया कि यह रक़म तो सीट बुक करने के लिए थी. आगे सालाना फ़ीस तो अलग से देनी होगी. यह सोयमी के लिए बहुत बड़ी रक़म थी.
इसी वाक़ये के बाद सोयमी ने तय किया कि वह मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेश जाएंगी. उनके लिए भारत के मुक़ाबले वहां पढ़ाई करना सस्ता था. सोयमी के पापा पुलिस इंस्पेक्टर हैं और माँ घर-बार संभालती हैं.
भारत में महंगी होती शिक्षा
आँकड़े दिखाते हैं कि भारत में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई का खर्च चार गुना बढ़ गया है.
2008 में कुल तीस लाख रुपए में होने वाला कोर्स अब एक करोड़ बीस लाख से अधिक की लागत से हो रहा है.
भारत की कुल मेडिकल सीटों में लगभग 48 प्रतिशत सीटें प्राइवट कॉलेजों से आती हैं और बाक़ी की सीटें सरकारी कॉलेजों में हैं.
सरकारी कॉलेजों में कम क़ीमत पर मेडिकल की पढ़ाई हो जाती है. लगभग ढाई लाख रुपए में पूरा कोर्स हो जाता है.
फेडरेशन ऑफ़ रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. अविरल माथुर का कहना है, “हमारे देश में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की लॉबी बहुत मज़बूत है.”
“हम इस बात की मांग कब से कर रहे हैं कि सरकार एक यूनिफार्म फ़ीस का ढांचा बनाए और प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में फीस को एक लिमिट के अंदर बनाये रखने के लिए भी योजना बनाए.”
भारत में हर 834 नागरिकों के लिए एक महज़ डॉक्टर है. ये आँकड़ा वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के प्रति 1000 नागरिक पर एक डॉक्टर के आंकड़े से बेहतर दिखता है.
हालांकि स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई कि देश में, ख़ास तौर से ग्रामीण इलाक़ों में स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स की कमी है.
साधारण डॉक्टरों के आंकड़ों में भी कमियां नज़र आईं. ख़ास तौर से ज़िला अस्पताल और छोटे सरकारी अस्पतालों में. औपचारिक पद पर कार्यरत डॉक्टरों की संख्या में फ़ासला दिखता है.
नेशनल मेडिकल कमिशन एक ऐसी सरकारी संस्था है जो प्राइवेट कॉलेजों में 50 प्रतिशत सीटों पर फ़ीस और अन्य खर्च के बारे में दिशा निर्देश जारी कर सकती है.
लेकिन ऐसा कितनी बार हुआ है और किस पैमाने पर हुआ है, यह साफ़ नहीं है. बीबीसी के बार-बार पूछने के बावजूद ना तो स्वास्थ्य मंत्रालय ने और ना ही एनएमसी ने कोई जवाब दिया है.
मेडिकल कॉलेज में सीटें
पिछले साल के नीट यूजी के आंकड़े देखें तो यह नज़र आता है कि हर 11 छात्र जो नीट यूजी परीक्षा में सफल हुए उनमें केवल एक को ही सीट मिल पाई.
यह आंकड़ा तब है, जब सरकारी और प्राइवेट कॉलेजों की सीटों को एक साथ मिला दिया जाए. संसद की हालिया रिपोर्ट में इस स्थिति को लेकर यह बताया गया है कि 10 लाख से ज़्यादा छात्रों के सामने यह विकल्प था कि वे एमबीबीएस के लिए प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में जा सकते हैं.
लेकिन उन कॉलेजों की फीस डेढ़ करोड़ तक जा सकती है. या फिर वे अपने सपनों को सच बनाने के लिए चीन,रुस या यूक्रेन चले जाएं, जहां पढ़ाई का खर्च कम है.
डॉक्टर ध्रुव चौहान दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में काम करते हैं. वे अपने आप को एक एक्टिविस्ट बताते हैं और स्टूडेंट्स और डॉक्टर्स के मुद्दों को उठाने का दावा भी करते हैं.
डॉ चौहान ने बताया, “यह आम धारणा है कि विदेश वही बच्चे जाते हैं जो नीट में अच्छा प्रदर्शन नहीं दे पाते. लेकिन यह ग़लत है. ऐसे कई छात्र हैं, जो नीट में अच्छे मार्क्स लाते हैं लेकिन जिन्हें सरकारी कॉलेजों में सीट नहीं मिल पाती उस सूरत में भारत के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में वही लोग पढ़ते हैं जो उतना खर्च उठा पाते हैं. बाक़ी के लोग विदेश चले जाते हैं.”
अपनी तरफ़ से सरकार इस कोशिश में लगी हुई है कि देश में मेडिकल सीटें बढ़ाई जाएं. फ़रवरी 2024 में पूर्व स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने कहा था, “आज देश में 707 मेडिकल कॉलेज हैं. पहले यह आँकड़ा 340 के क़रीब था.”
“पिछले 10 सालों में हमने इस आँकड़े को दोगुना कर दिया है. अब प्रधानमंत्री मोदी ने बताया है कि एक समिति का गठन किया जाएगा जो सरकार को इस बात का सुझाव देगी कि भारत में और किन इलाक़ों में भविष्य में मेडिकल कॉलेजों को खोलने की ज़रूरत है.
भारत में खोले जाएंगे और भी मेडिकल कॉलेज
सरकार ने यह साफ़ कर दिया है कि देश में और भी मेडिकल कॉलेज खोले जा सकते हैं. लेकिन मेडिकल कॉलेजों का जिस गति से विस्तार हो रहा है, उससे कुछ गंभीर सवाल भी पैदा होते हैं.
संसद की एक समिति ने अपनी जांच में यह पाया कि इस विस्तार के कारण मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाने वाले टीचर्स की संख्या में चिंताजनक कमी नज़र आ रही है.
इसी समिति ने यह भी बताया कि एक हाल ही में किए गए आकलन में सामने आया कि 246 कॉलेजों में से एक भी कॉलेज ऐसा नहीं था, जहां पर्याप्त टीचर्स हों.
सरकार को बार-बार यह भी कहा जा रहा है कि स्वास्थ्य और स्वास्थ्य अनुसंधान में बजट को और बढ़ाया जाए. भारत की नेशनल हेल्थ पॉलिसी भी यह कहती है कि जीडीपी का 2.5 प्रतिशत जितना खर्च सरकार स्वास्थ्य के लिए आवंटित करे.
फ़िलहाल स्वास्थ्य क्षेत्र को मिलने वाली बजट राशि निर्धारित राशि से कम है. फ़रवरी में संसद की एक और रिपोर्ट में कहा गया है कि अब तक बजट, जितना बढ़ाया गया है, वह स्वास्थ्य विभाग के लिए अपर्याप्त है.
पर्याप्त बजट नहीं
डॉ माथुर भी स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट की कमी की बात से सहमत नज़र आते हैं.
वह कहते हैं, “बजट की घोषणा के बाद हर साल हम लोग मायूस हो जाते हैं. चीज़ें तभी बदलेंगी, जब केंद्र सरकार स्वास्थ्य में अपना निवेश और अपना बजट बढ़ाएगी. “
विदेश जाने वाले भारत के छात्रों के सामने कितने कठिन विकल्प हैं, इस बात का उदाहरण गरिमा बाजपेयी से अच्छा शायद ही कोई दे पाए.
युद्ध ग्रस्त यूक्रेन में एमबीबीएस की तीसरे वर्ष की पढ़ाई कर रहीं गरिमा मेरे साथ एक वीडियो कॉल पर जुड़ीं.
गरिमा कहती हैं, “ऐसी कई रातें हमने देखी हैं, जब मिसाइल और विमान के हमलों को लेकर साइरन बजता ही रहता है. फिर बिजली और पानी में कटौती लगभग रोज़ की बात हो गई है. ऐसे माहौल में पढ़ाई करना भी आसान नहीं है.”
गरिमा साल 2022 में यूक्रेन गई थीं. गरिमा ने दो बार नीट की परीक्षा दी लेकिन उनके नंबर इतने अच्छे नहीं थे कि उनको सरकारी कॉलेज मिल सके.
हालांकि यूक्रेन में आने वाले ख़र्च के बारे में गरिमा का कहना है कि यहां भी पढ़ाई करना भी सस्ता नहीं है. पचास लाख तक टोटल खर्च है.
भारत से कई डॉक्टर भी जा रहे हैं विदेश
डॉक्टर माथुर ने बताया, “मेरे एमबीबीएस के बैच में 180 छात्र थे. उसमें से अब 40 छात्र अमेरिका में है. यह एक बड़ा नंबर है और मैंने देखा है कि समय के साथ यह बढ़ता ही रहा है.”
बीबीसी ने अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के आंकड़े देखे हैं, जिसमें यह बताया गया है कि 2023 में अमेरिका में 49961 डॉक्टर ऐसे थे जो भारत से अपनी पढ़ाई करने के बाद वहां पहुंचे थे.
यह आंकड़ा पिछले दस सालों में सबसे अधिक था. एक और आकलन में यह बताया गया है कि अमेरिका में 26,200 अप्रवासी डॉक्टर हैं. जिनमे से ज़्यादातर भारतीय डॉक्टर हैं जो कुल अमेरिकी डॉक्टरों की संख्या का लगभग 21 फ़ीसदी तक है.
वहीं ब्रिटेन में भारत से पढ़े डॉक्टर्स 2014 से विदेशों में पढ़े डॉक्टर्स की श्रेणी में सबसे बड़ा समूह बन कर सामने आए हैं. 2022 के आंकड़े दिखाते हैं कि 2402 डॉक्टर भारत से ब्रिटेन की वर्कफोर्स में शामिल हुए.
यह अभी तक के सभी सालों की तुलना में सबसे बड़ा आंकड़ा है. यहां यह समझना ज़रूरी है कि भारत की सरकार भारत से पढ़े डॉक्टर बाहर जाकर काम करे इसके ख़िलाफ़ नहीं है.
पूर्व स्वास्थ्य मंत्री मंडाविया ने कहा था, “भारतीय डॉक्टर्स की डिमांड पूरे विश्व में है. उन्हें भारत में तो काम करना ही चाहिए लेकिन भारत की बाहर भी काम करना चाहिए.