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Wednesday, October 22, 2025
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राजनीति के शाह : एक कठोर लीडर की छवि

अमित शाह ने महज 50 साल की उम्र में भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष पद संभाला है, इसी वजह से उन्हें पार्टी का सबसे युवा अध्यक्ष कहा जाता है। सिर्फ यही नहीं शाह भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार भी हैं।
साल 2014 से लेकर 2023 तक के लोकसभा चुनाव में उनकी बनाई रणनीति सफल रही। साल 2014 के आम चुनाव में शाह ने उत्तरप्रदेश में भाजपा और अपना दल के गठबंधन को 80 में से 73 सीटें दिलाईं, वहीं 2019 के चुनाव में देशभर में भाजपा के सीट बंटवारे, उम्मीदवार चुनने और प्रचार तक की सारी जिम्मेदारियां निभाईं। ऐसे में अमित शाह पार्टी में नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा का दूसरा सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे. शाह ने 1988 में रखा राजनीति में कदम अमित शाह का जन्म 22 अक्टूबर 1964 को मुंबई में हुआ। उनके परिवार से कोई भी सक्रिय राजनीति में नहीं था। पिता पीवीसी पाइप्स के व्यापारी थे। शाह 14 साल की उम्र में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े।
रिपोर्ट्स के अनुसार, शाह महज 17 साल की उम्र में पहली बार नरेंद्र मोदी से मिले थे। 22 साल की उम्र में भाजपा में शामिल हुए, 35 की उम्र में मंत्री बने और 50 साल की उम्र में शाह ने भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष का पद संभाल लिया। अमित शाह ने पहला चुनाव 1988 में प्राइमरी कोऑपरेटिव बॉडी के लिए लड़ा। तब से अब तक वे छोटे-बड़े 29 चुनाव लड़ चुके हैं और एक भी नहीं हारे। 2002 में गुजरात कैबिनेट में वे सबसे युवा मंत्री थे। उन्होंने गुजरात फाइनेंस कॉरपोरेशन और गुजरात रोड ट्रांसपोर्ट को घाटे से बाहर निकाला। अमित शाह की उपलब्धियां और प्रबंधन कौशल देख 2014 में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हें यूपी में लोकसभा चुनाव की जिम्मेदारी दी।
शाह 30 साल में ही देश की राजनीति की सबसे बड़ी शख्सियतों में से एक बन गए। बड़े नेताओं का टिकट काटने, कड़े फैसले लेने से शाह की एक कठोर लीडर की छवि है। लेकिन उनके प्रबंधन कौशल और जमीनी जुड़ाव की वजह से कार्यकर्ता उन्हें पसंद करते हैं। शाह चार्टर्ड प्लेन के इस्तेमाल से बचते हैं, कार्यकर्ताओं से फोन पर ‘दोस्त बोल रहा हूं’ कहकर बात करते हैं। अध्यक्ष बनने के बाद शाह का पहला लक्ष्य था भाजपा की सदस्यता 10 करोड़ करना। हालांकि इस बात का मजाक भी उड़ा। लेकिन मिस्ड कॉल से इस अभियान को नई तकनीक से जोड़कर शाह ने भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी बना दिया।
शाह ने 2014 के चुनाव से ही नई तकनीक और गांवों पर दिया जोर 2014 के चुनाव में भाजपा के लिए वॉर रूम भले प्रशांत किशोर के संस्थान सिटीजन्स फॉर एकाउंटेबल गवर्नेंस ने संभाला, लेकिन भाजपा के कंट्रोल रूम में अमित शाह की अहम भूमिका रही। शाह ने खुद ज्यादा रैलियां नहीं कीं। बल्कि रोज कई घंटे देशभर के युवा कार्यकर्ताओं के साथ कंट्रोल रूम में बैठकर हर सीट की रणनीति तैयार करते।
सीटों को तीन प्रकार में बांटा
पहली ऐसी सीटें जो भाजपा का गढ़ थीं, यानी कम मेहनत वाली। दूसरी ऐसी सीटें जहां कितनी भी मेहनत करें, जीतना संभव नहीं। तीसरी ऐसी थीं जो किसी भी पार्टी को जा सकती थीं। शाह ने तय किया किस सीट पर कितना समय-मेहनत खर्च करना है। गांव-गांव में बनाए प्रचारक: 2014 में यूपी का जिम्मा मिलने पर गांव-गांव में प्रचारक तैयार किए। उल्लेख एनपी की किताब ‘वार रूम’ के मुताबिक शाह को यूपी की हर लोकसभा सीट के कम से कम 100 स्थानीय नेताओं के नाम याद रहते थे।
गांव-गांव पहुंचा मोबाइल मोदी रथ
यूपी में गांव-गांव मोबाइल मोदी रथ चलाने का आइडिया शाह का ही था। गांवों में टीवी की कमी देख वैन से उम्मीदवारों के संदेश पहुंचाने का फैसला लिया। ये दूरदराज के गांव थे, जहां बाकी के दल पहुंचना जरूरी नहीं समझते थे। आधुनिक वॉर रूम पर जोर: शाह ने भाजपा के लखनऊ ऑफिस में आधुनिक वॉर रूम बनाया था। सोशल मीडिया से युवाओं तक पहुंचने को आईटी सेल बनाई। कॉल सेंटर बनाए, जो पार्टी के कार्यक्रमों की जानकारी देते थे। कॉल सेंटर पर फोन करने वालों को भी वॉलंटियर बनने का मौका दिया।
2019 के चुनाव में 161 जनभाओं के लिए डेढ़ लाख किलोमीटर सफर अमित शाह ने 2019 के आम चुनावों में पिछली बार से ज्यादा रैलियां कीं। खुद शाह ने बताया कि उन्होंने 161 जनभाओं के लिए डेढ़ लाख किलोमीटर सफर किया। देशभर की सीटों के लिए योजना बनाई।
मोदी के सबसे भरोसेमंद होने के बावजूद शाह की जिम्मेदारी में कमी नहीं आई, बल्कि और बढ़ी। शाह ने 2019 की योजनाओं पर गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले काम शुरू कर दिया था। पुलवामा हमले का रणनीति पर असर शाह ने 2019 के लिए विकास के एजेंडे की रणनीति बनाई थी, पर 14 फरवरी को पुलवामा आतंकी हमले ने सब बदल दिया। शाह तीन दिन किसी से नहीं मिले। रणनीति को लेकर असमंजस में थे। बालाकोट के बाद 26 फरवरी को शाह फिर लौटे। शाह ने पूरे अभियान को गांवों तक पहुंचाया, जबकि विपक्षी दल शहरी-अर्ध शहरी क्षेत्रों तक रहे। उन्होंने निर्देश दिया कि किसी पोस्टर-होर्डिंग्स में उनकी तस्वीर न हो। पार्टी की जमीन पर दफ्तर खुलवाए शाह ने हर जिले में अपनी स्वामित्व वाली जमीन पर दफ्तर होने का अभियान छेड़ा।
आज 78 फीसदी जगहों पर पार्टी का अपना दफ्तर है। 2.47 करोड़ सदस्यों वाली पार्टी को 11 करोड़ तक पहुंचाया तो पहली बार 11 लाख सक्रिय कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया। शाह की राजनैतिक यात्रा का औसत 524 किमी/दिन है। प्रचार के तीन तरीके तय किए सबसे पहले स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी लहर को कमजोर करना। दूसरा वोटरों के दिमाग पर छा जाने वाली प्रचार की ‘टाइमिंग’। तीसरा- प्रचार में चुनावी मुद्दा सिर्फ मोदी और राष्ट्रवाद को बनाना। शाह की छवि एक तरफ कठोर नेता की है, दूसरी तरफ वे जमीन से जुड़े माने जाते हैं।
जोखिम उठाते हैं शाह
स्थानीय नेताओं का ख्याल 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने और अध्यक्ष बनने के कुछ महीने बाद शाह ने शिवसेना से 25 साल पुराना गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर दी। ये फैसला प्रधानमंत्री मोदी के लिए भी चौंकाने वाला था। लेकिन भाजपा पर शिवसेना के दबाव को कम करने के लिए जरूरी था। उल्लेख एनपी की किताब ‘वॉर रूम’ में जिक्र है कि शाह लगातार स्थानीय नेताओं से बात करते हैं। खुद भी फोन लगाते रहते हैं और बात की शुरुआत ‘दोस्त बोल रहा हूं’ कहकर करते हैं।
कार्यकर्ताओं से जुड़ाव, खर्चे पर लगाम
अमित शाह अपनी यात्राओं के दौरान बहुत कम किसी होटल में रुकते हैं। वे किसी कार्यकर्ता या फिर सर्किट हाउस में ठहरना पसंद करते हैं। उनका मानना है इससे कार्यकर्ताओं मन की बात करीब से जानी जा सकती है। शाह छोटे-छोटे खर्चों पर भी नजर रखते हैं। ‘वॉर रूम’ किताब में एक किस्सा है। 2014 में पार्टी की बुकलेट छपवाई जा रही थी। प्रिंटर ढाई रुपए ले रहा था। लेकिन शाह के कहने पर उनके करीबी सुनील बंसल ने डेढ़ रुपए प्रति बुकलेट की दर से छपवाईं। शाह चार्टेड प्लेन्स भी इस्तेमाल नहीं करते हैं।
पार्टी का कामकाज बदला
अमित शाह पार्टी के काम करने के तरीकों में बदलाव किए। कार्यकर्ताओं की बात पार्टी तक पहुंचाने के लिए सिस्टम बनवाया ताकि दिल्ली में कम कार्यकर्ता जुटें। पहले चुनाव खर्च का पैसा थर्ड पार्टी से जाता था। 2014 से शाह ने सीधे एकाउंट में पैसा भेजने की शुरुआत की। शाह का मानना है संगठन 24 घंटे 365 दिन गतिशील रहना चाहिए। यह काम वे 1982-83 से वार्ड के बूथ प्रभारी के तौर से करते रहे हैं।
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